मजदूरों के साथ इतनी संवेदनहीनता क्यों?

 बशीर बद्र ने सच ही कहा है,

             " मैं बोलूं तो इल्जाम है बगावत का
                           चुप रहूं तो बेबसी सी होती है"।

     इस पंक्ति के बारे में कुछ बोलूं उससे पहले रोज सुबह की अखबारों की हेडलाइंस का जिक्र करना जरूरी है -यूपी के औरैया में दो ट्रकों की भिड़ंत में 14 मजदूरों की मौत.........., महाराष्ट्र के  औरंगाबाद में ट्रेनों से कटकर मजदूरों की मौत............., सड़क पर ही एक महिला ने दिया बच्चे को जन्म .......,.....,उत्तर प्रदेश में 1 मजदूर के घर पहुंचते ही उसकी मौत ................बच्चा बोला और कितना चल तक चलना है मां पैरों में छाले पड़ गए हैं......... आदि-आदि ।

अखबारों की वह खबरें हैं जो हमें रोज ,सुबह-सुबह देखने को मिलती हैं और एक बार फिर 1947 के बंटवारे की तस्वीरें जेहन में घूमने लगती हैं इससे एक बात तो तय हो जाती है कि भारत में आज भी एक वर्ग ऐसा है जो वही जिंदगी जी रहा है जो सन 1947 में जी रहा था वह है, मजदूर गरीब वंचित वर्ग । आज भारत ही नहीं अपितु पूरी दुनिया कोरोना वायरस के संकट से जूझ रही है और उबरने का प्रयास कर रही है परंतु भारत में इस बीच ऐसी तस्वीरें देखने को मिली जो आपको ही नहीं बल्कि एक सामान्य मानव को विचलित कर सकती हैं उन तस्वीरों का हमने ऊपर जिक्र किया है।

 इन तस्वीरों को देखकर वर्तमान सरकारों से ही नहीं अपितु पहले की सरकारों से भी सवाल पूछना ही चाहिए कि आखिर वह किस विकास और किस नए भारत के निर्माण की बात कर रहे थे कि यूपी-बिहार तथा अन्य राज्यों में आज भी मजदूरों का पलायन जारी है जिसके कारण मजदूर रोजगार के लिए दूसरे राज्यों में जाने को  मजबूर हैं और उन्हें वहां कई तरह के भेदभाव का शिकार होना पड़ता है इन बातों को छोड़कर वर्तमान की बात करते हैं वर्तमान समय में  हमारे गरीब वंचित बेसहारा मजदूर जो 2 जून की रोटी के लिए बड़े-बड़े शहरों में पलायन करके गए थे वह पुनः बेबस और लाचार होकर पैदल ही अपने घरों की ओर लौटने को मजबूर हैं भूख और थकान के कारण कई मजदूरों की मौत तक हो गई है निश्चित तौर पर इस महामारी के समय में जहां हर किसी को इसकी मार झेलनी पड़ी है वही मजदूर वर्ग इससे अछूता  कहां रह जाता परंतु अन्य वर्गों से कहीं अधिक पीड़ा इस वर्ग को झेलनी पड़ी है जो हम सब देख रहे हैं इसे बयां करने की जरूरत नहीं है ।लेकिन हद तो तब हो गई जब यूपी के औरैया में एक सड़क हादसे में 24 मजदूरों की मौत हो जाती है और उनमें से कुछ घायल हो जाते हैं और घायलों को शव ले जाने वाली ट्रकों में भरकर यूपी के आला अधिकारी उन्हें अस्पताल भेजते हैं, हद तो तब हो जाती है जब सरकार का मंत्री कहता है कि मजदूर चोर डकैतों की भात भाग रहे हैं ,हद तो तब हो जाती है जब सुप्रीम कोर्ट के सवाल एक सवाल पर सरकार का वकील कहता है कि मजदूर तो सड़कों पर है ही नहीं बल्कि यह सब फेक न्यूज़ है, हद तो तब हो जाती है जब सत्ता पक्ष और विपक्ष ठीक उसी तरह उनकी मदद  को सामने आते जैसे चुनावी रैलियों के समय जनता को बसों और ट्रेनों में भरकर ले जाते हैं और उनके  खाने-पीने का इंतजाम करते हैं बजाय उसके राजनीति कर रहे हैं।

पुलिस व्यवस्था पर जनता का बढ़ता विश्वास।



और इन सबके बीच वक्तव्य तो अच्छे दिए जा रहे हैं परंतु इनकी समस्या कोई नहीं सुनने वाला है यह सभी मजदूर अपनी जान जोखिम में डालकर पलायन करने को मजबूर है जिसका मुख्य कारण यही है कि लांकडाउन तो कर दिया परंतु इनकी रोजी रोटी का ख्याल नहीं रखा गया।
        अब सवाल यह उठता है कि इसका समाधान था भी या नहीं तो इसका उत्तर है हां। समाधान है भारतीय रेलवे प्रतिदिन लगभग 2.5 करोड़ यात्रियों को (जितनी कि श्रीलंका की जनसंख्या है) एक जगह से दूसरी जगह तक पहुंचाती है क्या संभव नहीं था कि इन मजदूरों को लांकडाउन के बाद इन को उनके गंतव्य स्थान तक पहुंचा दिया  जाता परंतु ऐसा हुआ नहीं जो आज हो रहा है छात्रों को हो या श्रमिकों को उनके घर स्पेशल ट्रेन चलाकर या बस चला कर भेजा जा रहा है यहां तक कि  विदेशों से भारतीयों को वापस लाया जा रहा है ।
     अब आपके मन में यह सवाल आ रहा होगा कि  लांकडाउन के पहले या बाद में  इन श्रमिकों को उनके गंतव्य स्थान पर पहुंचा ही दिया जाता तो आखिरकार लाॅकडाउन किस बात का जिसका जिक्र हमारे प्रधानमंत्री जी ने भी किया था और सच भी है। इसका उत्तर ढूंढने से के लिए सबसे पहले  श्रमिकों की स्थिति को समझ लिया जाए तो बेहतर होगा ऐसा माना जाता है कि श्रमिकों को उनकी कॉलर के आधार पर दो वर्गों में बांटा जाता है- सफेद कलर और नीली कॉलर अर्थात इनकी नौकरी की सुरक्षा किसी ना किसी रूप में होती है परंतु आश्चर्य की बात तो यह है कि इस बीच सड़कों पर तीसरा वर्ग भी देखने को मिला है इसे हम तीसरी काॅलर वाले वर्ग में भी रख सकते हैं अब आप यह जरूर पूछ सकते हैं कि तीसरी कॉलर वाले क्यों? दोस्तों इन्हें गौर से देखने पर आप पाएंगे कि यह वही गरीब वंचित लोग हैं जो मध्यम वर्ग से लेकर उच्च वर्ग की जिंदगी को आसान बनाते हैं ट्रकों से ईट ,सीमेंट ,सरिया म गिट्टी मौरंग उतारने तथा चढ़ाने वाले यही है।  निर्माण स्थलों पर काम करने वाले, हमारे कपड़े इस्त्री करने वाले ,हमारी बगिया की देखभाल करने वाले, रिक्शा चलाने वाले, हमारे बाल काटने वाले दुकानों पर समोसे जलेबी बनाने वाले यही लोग हैं।

इसके आधार पर उनकी दयनीय स्थिति को हम पता लगा सकते हैं कि यह बड़े शहरों में सरवाइव करने योग्य थे या नहीं या फिर यह इतने समझदार रहे होंगे कि यह वही रुककर लाॅकडाउन का पालन कर सकते हैं आपको नहीं लगता कि इनकी स्थित भूखों मरने की हो गई थी कुछ भी हो सच यही है हमने इनकी स्थिति का ध्यान नहीं दिया इस तीसरे वर्ग को हमने कभी समझने की कोशिश ही नहीं की इसका मूल कारण यही है कि यह खामोश रहते हैं परंतु आज एक खामोश नहीं अपनी  मौजूदगी राजमार्गो पर जान देकर दर्ज करा रहे हैं।

इनकी स्थिति को एक उदाहरण से भी समझा जा सकता है कई घरों के बाहर आपने देखा होगा कि अंगरक्षक तैनात रहते हैं और वह आज भी तैनात है उनको शायद इसलिए भागना नहीं पड़ा क्योंकि उन्हें पता है कि हमें तो पगार मिलने ही है परंतु इन मजदूरों का क्या? शायद इनके पास कोई दूसरा ऑप्शन ही नहीं बचता घर जाने के सिवाय।

      कई नकारात्मक बातों के बीच अच्छी बात यह है कि हम सब इस वर्ग को पहचान कर इनकी सहायता करने को आगे आए तमाम सरकारें भी प्रयास कर रही हैं परंतु दूसरा पहलू तो यही है कि इन गरीब वंचित असहारा मजदूरों को हम लोगों से निराशा ही हाथ लगी है और प्रशासन भी कहीं ना कहीं इनकी समस्याओं के प्रति उदासीन ही रहा है इस बात का जवाब प्रशासन ही नहीं अपितु हम सभी लोगों को एक न एक दिन देना ही पड़ेगा अंत में यही कहूंगा कि नए भारत की विचलित कर देने वाली तस्वीरें हम सभी भारतीयों के मुंह पर तमाचा है इससे हमें सीख लेने की जरूरत है और एक उम्मीद के साथ इन बेसहारा वंचित  गरीब मजदूरों के लिए कुछ किया जाना चाहिए उम्मीद यही की जा सकती है ।

           चलते चलते आपसे यही अपील करूंगा कि दोस्तों आप के आस पास कोई भी गरीब मजदूर आम आदमी भूखा दिखे दिखे उसकी सहायता करें और वह अगर कहीं भटक रहा तो उसे उसके घर पहुंचाने में मदद अवश्य करें।



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